Thursday, January 1, 2015

कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... 



कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... 
जी ही लेती हूँ .

साँसोँ के हर सवाल में 
हर रुत   में - हर हाल में 
अश्कों के हर गीत में ,, 
तन्हाइयों की हर ताल में 

कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... 
जी ही लेती हूँ ,

मीठे लफ़्ज़ों के बादल बिन भी ,
नीली - बूँदों के आँचल बिन भी  .

दरकती रिश्तों की ज़मीं पर भी ,
जलती धूप के कालीन पर भी .

झुलसाती हवाओं के बीच भी ,
काम  न आती दुआओं के बीच भी  .

बदन जलाती  दोपहर को भी  ,
तन्हाइयों के ज़हर को भी ,
पी ही  लेती हूँ .

जी ही लेती हूँ ..... 
हर रुत   में - हर हाल में 
कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... !!
+++++++++++++++++++++++
डॉ कल्याणी कबीर 


Friday, April 25, 2014

                                   सूरज  बाबा रोज़  आते है



सूरज  बाबा रोज़  आते हैं                                                
 लेकर पोटली  में  चमचमाती  धूप                                        
और  ,,,
 झिलमिलाती किरणों की  चूड़ियाँ 
पर मिलती नहीं उन्हें खिड़कियाँ ...
न आँगन ,,
न चबूतरे ,, 
न छत ,, 
न  बरामदा 
सिर्फ  दीवारें  ही  दीवारें दिखती  हैं
 घरों के  अंदर  भी  और  बाहर  भी
 गैराज  बन गए  गाड़ियों के  , जो कल थे  खेल  के  मैदान ,
 चहचहाते   थे  परिंदे जहाँ , वो  शाखें  है  सुनसान 
 उँडेले  किस पर वो दुआएँ  ईश की ,,
फैलाएँ अब  कहाँ   किरणें अशीष  की 
 लौट  जाते  हैं वो उदास रात की  पगडंडियों पर 
इंसानों की  जगह  ज़मीं पर रेंगते 
 मशीनों को  देखकर  .....//
+++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

Wednesday, January 15, 2014


सुनो सियासत के शातिर मदारी ,,   


सुनो सियासत के शातिर मदारी ,,

एक दिन मेरी भूख तुम्हारे दरवाज़े पर जाकर 

चीखेगी ,

चिल्लाएगी ,,

शोर मचाएगी ,,,
छीनेगी तुम्हारे पालतू कुत्ते से अपने हिस्से की रोटी
और हमारी उदास आँखें तुम्हारी गाड़ियों से भी तेज़ ख्वाब बुनेंगी
उस दिन अपनी नफ़रत को स्याही बनाकर

हम लिखेंगे दास्ताने बर्बादी तुम्हारी
और फिर उस बगावत के सारे हर्फ़
तैरेंगे फ़िज़ाओं में गीत बनकर 

करेंगे हमारे हक़ की बात
बताएँगे कि जम्हूरियत तुम्हारे घरों की दीवारों पर लटका कैलेण्डर नहीं है
जिसे तुम पलट दो अपने फ़ायदे देखकर
बल्कि ये पन्ने हैं हमारी तक़दीर के
जिसे हम ही लिख सकते हैं
अपनी ताकत , हिम्मत और कोशिश की कलम से
और गर जरुरत पड़ी तो
तलवार से भी ..........// Kalyani Kabir//

Saturday, December 28, 2013

चाँद  कायर  नहीं  ,,,,,,,,



सूरज  कायर  है  ,
तभी  तो  निकालता  है  दिन  में ही  
जब  जाग  चुकी   होती  है   दुनिया  
भीड़  बिछी  होती  है  सडकों पर  
परिंदे  कर रहे  होते  हैं  चहल  - कदमी  इर्द - गिर्द 

पर  चाँद  कायर  नहीं  
बेख़ौफ़  निकलता  है  चीर  कर सीना  अँधेरे  का 
काँधे  पे लिए  हौसला  -  हिम्मत  हिमालय  सा 
चाँद  जानता  है  तन्हा  चलना  
खामोश रहना 
आहिस्ता  -  आहिस्ता  अँधेरे  को  निगलना 
तभी  तो अच्छा  लगता  है  मुझे 
जब  कहते  हो  तुम  मुझे --  ''  चाँद ''  // 

कल्याणी  कबीर   ,, 28/12/2013 //

Wednesday, December 25, 2013

थके  -  हारे  हुए  कदमों  से  भी  चलती तो  अच्छा  था ,,,,,,,,
==============================================

न  रह  खामोश  ऐ  औरत  ,,,तू  कुछ  कहती  तो  अच्छा  था ,
वतन के  आधे  नक़शे   पे  तू  भी रहती  तो    अच्छा  था 

नहीं  उम्मीद    रख  गैरों     से     तेरे  अश्क़      पोछेंगे  , 
 तू  अपने  दर्द  का  मरहम  खुद  ही  बनती  तो  अच्छा  था 

नज़र आती  नहीं  फसलें  ज़मीं पे  अब  मुहब्बत  की , 
तू  बन  के पावनी  गंगा  ,  यहाँ  बहती  तो  अच्छा  था 

जो  देते  हैं  सजा  तुझको  तेरे  मासूम होने  की ,
उनके शातिर  गुनाहों को  नहीं  सहती  तो  अच्छा  था 

तुम्हें  बाज़ार  में बिकता  खिलौना  मानते  हैं  जो ,
ऐसे  बीमार  लोगों से  नहीं  डरती  तो  अच्छा  था 

अगर  महफूज़  रखना  है  तुम्हें  नामों -  निशां  अपना ,
थके  -  हारे  हुए  कदमों  से  भी  चलती तो  अच्छा  था ....//

    परिचय:
 * बिहार  के  मोकामा  नामक  गाँव  में  ५  जनवरी  को  जन्म ,
*  सम्प्रति   झारखण्ड  के  जमशेदपुर  शहर  में  अध्यापिका के  पद  पर  कार्यरत  ,
*  आकाशवाणी  जमशेदपुर  में  आकस्मिक उद्घोषिका ,
*  सहयोग ,  अक्षरकुम्भ, सिंहभूम  जिला  साहित्य  परिषद्  और  जनवादी  लेखक  संघ  
     जैसे  साहित्यिक  मंच  की  सदस्या  .
*स्थानीय  समाचार  पत्रों  ( हिन्दुस्तान  ,  दैनिक जागरण  ,  दैनिक  भाष्कर  , प्रभात  खबर  ,  इस्पात  मेल  )
आदि  में  रचनाएं प्रकाशित).

Tuesday, November 26, 2013

मैं चलती हूँ रुक कर - गिरकर


              मैं  चलती  हूँ रुक  कर -  गिरकर .,.,.,.,.,.,.,.,


ओस  की  बूँदें  चुनकर  -  चुनकर  
मैं  चलती  हूँ रुक  कर -  गिरकर 
ये  जीवन है  नदी  की  लहरें 
बहती  रहती  कलकल - कलकल 
औरत  का दिल पीर की  कुटिया 
 फेंको   ना  तुम कंकड़  - पत्थर
देते  धोखा बनकर  अपने 
 चलना   उनसे  बचकर -  बचकर
उड़ने  के  हैं अपने  खतरे
ज़मीं   पे  रहना  डटकर -  डटकर
जिन पन्नों  में  छुपे  हैं आँसू 
उनकी बातें  मतकर -   मतक

Saturday, November 23, 2013


सर्द   हवा .....



सर्द  हवा  हैं  रातें  सर्द  ,  अब  उनसे  मुलाकातें  सर्द .
बोझिल  आँखों  को  मत  दो ,  ख्वाबों   की  सौगातें  सर्द .
कौन  सुनाये - सुनेगा  कौन , चिकनी - चुपड़ी  बातें  सर्द  .
सोने  जैसी  धूप  में  भी  बिखरी  है  जज्बातें   सर्द .
नेता  और  जनता  के बीच  घातें और  प्रतिघातें  सर्द .
जब  भी  डाला   जेब  में  हाथ , हो  गए  सारे  वादे  सर्द .
गरीबी  बसती  है  जिस  गाँव ,  आती  हैं  बारातें  सर्द .
जब  से  गया  तू  शहर  से  दूर  , पड  गई   तेरी  यादें  सर्द .

कल्याणी  कबीर  
28  दिसम्बर , 2012